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॥ सर्वासिदिवचानिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ षष्ठ अध्याय ॥ पान ५१०॥ यह प्रयोजन है, जो, आगें देवआयुका आश्रव कहेगे, सो स्वभावमार्दव देवायुकाभी आश्रव है ऐसा जणाया ॥ आगें पूछे है कि ए दोयही मनुष्यायुके आश्रव हैं कि औरभी हैं ? ऐसे पूछे सूत्र कहें हैं--
॥निःशीलवतत्वं च सर्वेषाम् ॥ १९॥ याका अर्थ-- शील कहिये उत्तरगुण, व्रत कहिये मूलगुण, तिनकरि रहितपणा है; सो सर्व आयु कहिये च्याखोंही आयुका आश्रव होय है । इहा सूत्रमें चशब्द है सो पहलै अल्पारभैपरिग्रहपणा कह्या ताका मनुष्यके आयुका समुच्चयके अर्थि है । तातें अल्पारंभपरिग्रहपणाभी अरु निःशीलव्रतपणाभी मनुष्यआयुके आश्रव हैं, ऐसें जानना । शील अर व्रत इनका व्याख्यान आ होसी । इन रहित सो निःशीलवतपणां बहुरि सर्वेषां कहतां सर्वही आयुका यह आश्रव जानना । इहां पूछे, जो, देवायुका आश्रवहीभी शीलबतरहितपणातें होय है कहा ? तहां आचार्य कहै हैं, सत्य है, होय है, परंतु भोगभूमिकी अपेक्षा जानना, तहांका जीव अप्रती है अर देवायुही बांधे है। आगें, चौथा आयु जो देवआयु ताका आश्रव कहा है ऐसे पूछ सूत्र कहें हैं
॥ सरागसंयमसंयमासंयमाकामनिर्जराबालतपांसि देवस्य ॥२०॥
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