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॥ सर्वावसिदिवनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ षष्ठ अध्याय ॥ पान ५१२ ॥ | प्रवेश करे विष खाय ऐसे मरण करै चित्तमें करुणा राखै जलकी रेखासमान क्रोध तिनकें होय ऐसे व्यंतरादिवि उपजै हैं॥
आगें पूछे, कहा देव आयुका आश्रव एतावन्मात्रही है ? आचार्य कहै हैं, नाहीं, औरभी है ऐसें सूत्र कहै हैं
॥ सम्यक्त्वं च ॥२१॥ याका अर्थ- सम्यक्त्वभी देवआयुका आश्रवकू कारण है । इहां देवका विशेष न कह्या, तौऊ कल्पवासीहीका ग्रहण करना । जाते न्यारा सूत्र ऐसें जनावनकूही कीया है । इहां प्रश्न, जो, पहले सूत्रमें सरागसंयम संयमासयम कहे तिनकै भवनत्रिककी आयूकाभी आस्रवकी प्राप्ति आवै है । जातें इहां सम्यक्त्वका सूत्र न्यारा कह्याही है । ताका समाधान, जो, यह दोष नाही है । जाते सम्यक्त्वका अभाव जाके होय ताके सरागसंयम संयमासंयम ए नामही न पावें हैं, ते दोऊभी इस सूत्रमें गर्भित कर लेंगे। इहां कोई पूछ, सम्यक्त्वतें कल्पवासी देवहीका आयु बंधै ऐसा नियम कह्या तहां तीव्रसम्यग्दृष्टीनिका तो समझे । बहुरि जे अव्रती सम्यग्दृष्टि हैं तिनके मिथ्याटीकेसे बहुआरंभादिक कार्य देखिये हैं, ताके कैसे नियम संभवै ? तथा राजा श्रेणिक क्षायिक
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