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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ षष्ठ अध्याय ॥ पान ५१३ ॥ सम्यक्त्वी अपघातते मरण कीया, तातें नरक गया ऐसें पुराणमें लिखे है सो कैसे समझें? ताका उत्तर, जो, इहां मनुष्यतिर्यचकी अपेक्षाकरि नियम है । देव नारकीनिकै सम्यक्त्व होतेंभी मनुष्यआयुका बंध हो है । सम्यग्दृष्टि देव नारकी मनुष्यही उपजै हैं। बहुरि मनुष्य तिर्यचके देवायु बंधै है। तिनके मिथ्यात्वके अभावतें जीवतत्वविर्षे अजीवतत्वकी श्रद्धाका अभाव भया है । त्रसस्थावर जीवनिकू सर्वज्ञके आगम अनुसार श्रद्धान कीया है ॥
बहुरि अनंतानुबंधी कषाय मिथ्यात्वकी लार लगी है। सो तिसके विशेष क्रोध मान माया लोभका अभाव भया है । तातें तिस अनंतानुबंधिसंबंधी हिंसाका अभाव है। सर्व जीवनितें अंतरंगविर्षे करुणाभाव है । सर्वकू आप समान जाने है । कदाचित् अप्रत्याख्यानावरणका तीव्र उदयतें आरंभादिकविर्षे प्रवर्ते है। तहां अपने तीव्र अपराध जाने है। तीव्र उदयतें कार्यका अभाव न कीया जाय है। तहांभी न्याय अन्याय लौकिकसंबंधी आचार विचार बहुत करै है । अपनी जाणिमें अन्यायविर्षे नाही प्रवत है। शुद्धवृत्ति न्यायनें लिये आरंभादिक करै है। तामें हिंसा होय है ताकू ऐसा जाने है, जो, यामें दोष नाही; हमारी पदवी है ऐसे स्वच्छंद निःशंक परिण| मन करै है । ऐसें होतें अंतरंगके कषाय निपट हलके हैं । तातें कल्पवासी देवहीका आयु बंधै है ॥ |
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