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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ षष्ठ अध्याय ॥ पान ५१९ ॥ दृढ करि थिरता करणी सो स्थितीकरण है ॥ ६॥ धर्मविर्षे तथा धर्मात्माविर्षे प्रीति दृढ होय परमवत्सलभाव होय सो वात्सल्य है ॥ ७॥ दर्शन ज्ञान चारित्र तेई भये तीनि रत्न तिनकरि आत्माकू अलंकाररूप शोभायमान करि उद्योत करना तथा महान् दान जिनपूजा प्रतिष्ठा विद्या मंत्र अतिशय चमत्कार करि मार्गका उद्योत करना जाते लोक ऐसा जानै ‘यह धर्म सत्यार्थ है' ऐसे करना, सो प्रभावना है ॥ ८॥ ऐसें सम्यग्दर्शनके अतीचार सोधि अष्टांगभूषित करना, सो दर्शनविशुद्धि है ॥१॥
सम्यग्ज्ञानादिक जे मोक्षके साधन तथा तिनके साधन जे गुरु शास्त्र आदि तिनविर्षे अपने योग्य प्रवृत्ति करि सत्कार आदर करना अथवा कषायकी निवृत्ति, सो विनयसंपन्नता है ॥ २ ॥ अहिंसादिक व्रत तथा तिनके रक्षक कोधवर्जनादिक शील तिनकू उत्तरगुणभी कहिये तिनविर्षे यथापदवी मनवचनकायकरि दोष न लगावना, सो शीलवतेष्वनतिचार है ॥ ३॥ मति आदि ज्ञानके भेद प्रत्यक्षपरोक्षप्रमाणरूप अज्ञानका अभाव जिनका फल तथा हेयका त्याग उपादेयका । ग्रहण तथा उपेक्षा कहिये वीतरागता जिनका फल ऐसें ज्ञानकी भावनाविर्षे निरंतर उपयोग राखणा, सो अभीक्ष्णज्ञानोपयोग है ॥ ४॥ संसारविर्षे शरीरसम्बन्धी मनसंबंधी अनेकभेद लिये अतिकष्ट
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