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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ षष्ठ अध्याय ॥ पान ५१८ ॥
हैं, तिनके निमित्ततैं श्रद्धातें छूटै नाहीं, तथा अरहंतका उपदेश्या प्रवचन ताविषै ' यह सत्य है कि असत्य है' ऐसा संदेहका न करना, सो निःशंकितत्व है ॥ १ ॥ इहलोक परलोकसंबंधी विषयभोगकी वांछा न करे, तथा अन्यमतमें किछु लौकिक चमत्कार देखि तिस मतकी यांछा न करै, कोऊ कारण आइ वणै तौऊ वांछाकरि श्रद्धानकूं न छोडे, सो निःकांक्षितत्व है ॥ २ ॥ शरीर आदिकूं अशुचि जानि यह शुचि है ऐसा मिथ्या संकल्पका अभाव तथा अरहंत के प्रवचनविषै फलाणां कष्ट घोर कह्या है जो ' यह न होय तौ और तौ सर्व युक्त है' ऐसी अशुभ भावनाका अभाव सो निर्विचिकित्सा है ॥ ३ ॥ अनेकप्रकारके कुनयके पक्षपातरूप मत ते तत्वसारिखे समान दीसै अर यथार्थ नाहीं, तिनविषै परीक्षारूप नेवनिकरि परीक्षा करि युक्तका अभाव देखि मूढता रहित होना, सो अमूढदृष्टिता है ॥ ४ ॥
उत्तमक्षम आदि धर्मनिकी भावना करि आत्माके धर्मकी वृद्धि करणी, सो उपबृंहण है तथा याका नाम उपगूहनभी है । तहां साधर्मी जनकूं कर्मके उदयतें कोई अवगुण लग्या होय ताकूं उपदेशकर छुडावना तथा जामें धर्ममार्गकी अवज्ञा न होय तैसें छिपावना सो उपगूहन है ॥ ५ ॥ कषाय आदि कर्मके उदयकरि धर्मतें छूटने के कारण बणै तहां आपकूं तथा साधर्मीजनकूं धर्मतें
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