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।। सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ षष्ठ अध्याय ॥ पान ५०४ ॥ ___याका अर्थ- केवली श्रुत संघ धर्म देव इनका अवर्णवाद कहिये अणछते दोष कहने , ताकरि दर्शनमोहकर्मका आश्रव होय है। तहां इंद्रियनितें जानना बहुरि अनुक्रमतें जानना बहरि किछु आडो आवै तब न जानें सो व्यवधान ताकू अंतरभी कहिये। इनतें उल्लंघि जाके विनाइन्द्रिय एककाल सर्व जाननेवाला ज्ञान होय सो केवली, ऐसें अरहंतभगवान् तिनकू कहै कवलाहार करै है विनाआहार. करै जीवै कैसे ? तथा केवल आदि तथा तूवी आदि राखै है, तथा कालभेदकरि ज्ञान वर्ते है इत्यादिक वचन कहै सो केवलीनिका अवर्णवाद है । बहुरि तिन केवलीनिका भाष्या बुद्धिका अतिशय ऋद्धिकरि युक्त जे गणधर तिनकरि ग्रंथरचनारूप कीया सो श्रुत शास्त्र ताविर्षे कहै मांसभक्षण मदिरापान करना कामातुर होय तौ मैथुनभी सेवना रात्रिभोजन भी करै इनमें पाप नाही ऐसे शास्त्रमें कह्या है ऐसैं कहना शास्त्र श्रुतका अवर्णवाद है । बहुरि संघविर्षे कहे मुनि ते शूद हैं स्नान करेंही नाही मललिप्त जिनका अंग है ए दिगम्बर अपवित्र हैं निर्लज हैं, इहांही दुःख भोगवे हैं, परलोकविर्षे कैसे सुखी होंयगे इत्यादिक वचन कहना, संघका अवर्णवाद है ।।
इहां संघ कहतां रत्नत्रयकरि सहित च्यारिप्रकारके मुनिकू संघ कया है । तहां मुनि कहिये अवधिमनःपर्ययज्ञानी, ऋषि कहिये ऋद्धि जिनकू फुरी होय, यति कहिये इन्द्रियके जीतनहारे,
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