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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ षष्ठ अध्याय ॥पान ५०५ ।।
अनगार कहिये सामान्य साधु ऐसें च्यारि भेद हैं । इहां कोई पूछे , एकही मुनिकू संघ कैसे कहिये? अनेक व्रतआदि गुणनिका समूह जामें है तातें एककैभी संघपणा वणे है । बहुरि अहिंसाका लक्षण बहुरि केवली श्रुतकेवलीके आगमकरि कह्या है ऐसा, धर्म है, ताकू कहै जिनका धर्म है सो गुणरहित है याके सेवनहारे असुर होंयगे इत्यादिक कहना, सो धर्मविर्षे अवर्णवाद है । बहुरि देव । च्यारिप्रकारके पहले कहे तेही, तिनकू कहै देवता मांसाहारी हैं, मदिरा पीवें हैं, ऐसें कहिकरि | तिनकी स्थापना करि जीव मारि तिनकू चढावै मदिरा चढावै इत्यादिक कहें करे सो देवनिका अवर्णवाद है । ऐसें गुणवान् महंतपुरुषनिवि तथा तिनका प्रवृत्तिविर्षे विनाहोते दोष आरोपणा करे, सो अवर्णवाद है । सो यातें मिथ्याश्रद्धानलक्षण जो दर्शनमोहकर्म ताका आश्रव होय है ॥ आगें, मोहनीयकर्मका दूसरा भेद जो चारित्रमोह, ताके आश्रवके भेदकू सूत्र कहै हैं
॥ कषायोदयात्तीव्रपरिणामश्चारित्रमोहस्य ॥ १४॥ याका अर्थ-- कषायनिके तीव्रउदयतें तीव्रपरिणाम होय तातें चारित्रमोहनीयकर्मका आश्रव होय है । तहां आपकै अर परकै कषाय उपजावना बहुरि तपस्वीजनकू तथा ताके व्रतर्फे दूषण लगावना बहुरि जामें संक्लेशपरिणाम बहुत होय ऐसा भेष तथा व्रत धारणा इत्यादि तीव्रकषायनिके |
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