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॥ सर्वार्थसिदिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ षष्ठ अध्याय ॥ पान ५०७ ॥
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संतोष राखना इत्यादिकतें पुरुषवेदवेदनीयका आश्रव होय है। बहुरि प्रचुरकषायपरिणाम गुोंद्रिय लिंग आदिकका काटना, परस्त्रीविर्षे आसक्तताते वशीभूतपणा इत्यादिक. नपुंसकवेदवेदनीयका आश्रव होय है।
आगें, मोहनीयकर्मका आश्रवभेद कहे , अर ताके अनंतर कह्या जो आयुकर्म , ताके आ- | श्रवके कारण कहने हैं । तामें आदिका नारकीजीवनिका आयुआश्रवका कारण कहनेकू सूत्र कहै हैं । कैसा है यह आयु ? नियमरूप है उदयकाल जाका, इनका आयु छिदै नाहीं है ॥
॥बहारम्भपरिग्रहत्वं नारकस्यायुषः ॥१५॥ याका अर्थ- बहुतआरंभपणा तथा बहुतपरिग्रहपणां नारकीके आयुके आश्रवों कारण है। तहां प्राणीनिकू पीडाका कारण व्यापार प्रवर्तन करना, सो तौ आरंभ है । बहुरि मेरा यह है ऐसा | ममत्वभाव है लक्षण जाका, सो परिग्रह है । बहुरि ए जाके बहुत होय सो बहुआरंभपरिग्रह कहिये।। सो कहा ? हिंसा आदि पंच पापनिविर्षे क्रूरकर्म करना निरंतर प्रवर्तना, परधन हरणां, विषयनि- । की अतिलोलुपता करणी, कृष्णलेश्याकरि तज्या जो रौद्रध्यान तिससहित मरणा इत्यादिक हैं लक्षण जाका, सो नारकआयुका आश्रव है। याका विशेष-मिथ्यात्वसहित आचार, उत्कृष्टमानकषाय,
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