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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ षष्ठ अध्याय ॥ पान ४९६ ।।
भई । ताकूं कहिये, जो छते ज्ञानकूं सद्विज्ञानका विनय करना तथा प्रदान कहिये शिखावनें आदि तथा ज्ञानके गुणानुवाद करना इत्यादि न करे सो तो आसादना है । बहुरि साचे ज्ञानकूं कहै यह ज्ञान झूठा है तथा ज्ञानही नाही ऐसें कहना तथा ज्ञानके नाशका आभिप्राय सो उघात है । ऐसा भेद जानना । बहुरि सूत्रमें तत्शब्द है ताकरि ज्ञानदर्शन लेना ॥
इहां पूछे, जो, इहां ज्ञानदर्शनका प्रकरण नाही, विनाकहे कैसें लेने? ताकूं कहिये, इहां प्रश्नकी अपेक्षा है | शिष्यका प्रश्न जो ज्ञानदर्शनावरण कर्मका आश्रव कहा? ऐसें प्रश्नतें ज्ञानदर्शन लेने । ऐसें कहनेतें ज्ञानदर्शनविषै तथा तिनके कारण जे गुरु पुस्तक आदि तिनविर्षं प्रदोषादिक करै ते लगाय लेने | जातें गुरु आदि ज्ञान के कारण हैं, तेभी जानने । ऐसें ए प्रदोषादिक ज्ञानदशनावरण कर्मके आश्रवके कारण हैं। यहां ऐसा जाननां, जो, एककारणकार अनेक कार्य होय हैं, सो प्रदोषादिक ज्ञानकेविषै होय । तैसैंही दर्शनविषै होय ऐसें समान हैं । तौऊ दोऊ कर्मका आश्रवरूप कार्य न्यारा न्यारा करे हैं । अथवा विषयके भेदतें आश्रवकाभी भेद है । ता ज्ञानसंबंधी प्रदोषादिक ज्ञानावरण कर्मका आश्रव करै है । दर्शन संबंधी दर्शनावरणका आश्रव करे है | इहां एता और जाननां, जो आचार्योपाध्यायतें तौ प्रतिकूल रहना, अकाल अध्ययन
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