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॥ सर्वार्थसिद्धिवचानका पंडित जयचंदजीकृता ॥ षष्ठ अध्याय ॥ पान ४८७ ॥
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इहां इन्द्रिय कषाय अव्रत तो कारण हैं । बहुरि किया हैं ते तिनके निमित्त होय हैं, तातें कार्य हैं । ऐसें भेदरूप जाननै । इहां कोई कहै, इन्द्रिय कषाय अव्रत ए क्रियास्वरूपही हैं, तातें क्रियाके ग्रहणते ग्रहण भयेही, जुदे काहेदूं कहे? ताकू कहिये, जो, ऐसें नाहीं। जाते एकान्त नाहीं है । जो इन्द्रियादिक क्रियास्वभावही हैं । प्रथम तौ नाम स्थापना द्रव्यरूप इन्द्रियादिक हैं' ते क्रियास्वभाव नाहीं हैं, अर आश्रवकू कारण हैंही, सो न्यारे कहे चाहिये । बहुरि ऐसाभी नही, जो, ए इन्द्रियादिक द्रव्याश्रवही हैं। भावाश्रकर्मका ग्रहण है, सो पचीसक्रियातें होय है । जाते योगरौं भया जो कर्मका ग्रहण ताकू द्रव्याश्रव मानिये है । तातें ऐमा है, जो इन्द्रियकषायावत हैं ते कारणरूप भावाश्रव हैं अर कार्यरूप पचीस क्रिया हैं। सो कारण कार्य दोऊही कहे चाहिये । इन कारणनिविना क्रिया होय नाहीं । अर कारण विद्यमान रहे तेते क्रिया प्रवर्तेही। ए पचीस क्रिया कही ते संक्षेपरूप कहीं हैं। इनका विस्तार क्रियाके स्थानक असंख्यातलोकमात्र हैं तिनका विशेष अगिले सुत्रमें ज्ञान अज्ञान तीव्र मंद भाव आदिकरि कहसी ॥
- बहुरि कोई कहै, इन्द्रियतेंही सर्व आश्रव हैं । इनही लोक कषायादिकविर्षे प्रवर्ते है, तातें F कषायादिकका ग्रहण न चाहिये । ताडूं कहिये, ऐसा नाहीं है । जातें इन्द्रियनिकी रागसहित
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