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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ षष्ठ अध्याय ॥ पान ४८५ ॥
प्रवर्तन, सो प्रयोगक्रिया है ॥ ३ ॥ संयमी पुरुषकै असंयमके सन्मुखपणा, सो समादानक्रिया है ॥४॥ ईर्यापथगमन करना, सो ईर्यापथक्रिया है ॥ ५ ॥ ऐसें पांच ए क्रिया भई ॥
बहुरि क्रोधके वश” परकू दोष लगावनेकी प्रवृत्ति दुष्टस्वभावता, सो प्रादोषिकी क्रिया | है ॥ १ ॥ दुष्टपनाके कार्य चोरी आदिका उद्यम करना, सो कायिकी किया ॥२॥ हिंसाके उपकरण शस्त्रादिकका ग्रहण, सो अधिकरणिकी क्रिया है ।। ३ ॥ जाते आपकू परकू दुःख उपजै ऐसा | प्रवर्तन, सो पारितापिकी क्रिया है ॥ ४ ॥ आयु इन्द्रिय बल उच्छास निःश्वास जे प्राण तिनका वियोग करना, सो प्राणातिपातिनी क्रिया है ।। ५ ॥ ऐसें ए पांच क्रिया ॥ - बहुरि प्रमादी पुरुषकै रागभावका आदितपणातें रमणीकरूप देखनेका अभिप्राय सो दर्शनक्रिया है ॥ १ ॥ प्रमादके वश” स्पर्शनयोग्य वस्तुकविर्षे रागपरिणामतें प्रवृत्ति, सो स्पर्शनक्रिया है ॥ २ ॥ विषयके अपूर्व नवे नवे कारण आधार उपजावना, सो प्रत्ययिकी क्रिया है ॥ ३ ॥ जहां स्त्री पुरुष पशु बैठते प्रवर्तते होय तिस क्षेत्र में मलमूत्र क्षेपणा, सो समतानुपातक्रिया है॥४॥ विनाझाड्या विनामर्दलीथिवीउपरि काय आदिका निक्षेपण करना, सो अनाभोगक्रिया है ॥ ५॥ ऐसे ए पांच क्रिया ॥
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