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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनका पंडित जयचंदजीकृता ॥ पष्ठ अध्याय ॥ पान ४८३ ॥
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शुभरूप न होनें दे सो पाप है । सो असातावेदनीय आदिक हैं |
आगे पूछे है, जो यहू आश्रव सर्व संसारी जीवनिकै समानफलका कारण है, कि किछु विशेष है? ऐसें पूछें सूत्र कहै हैं
॥ सकषायाकषाययोः साम्परायिकेर्यापथयोः ॥ ४॥
याका अर्थ · - कषायसहित जीवकै तौ सांपरायिक आश्रव होय है । बहुरि कषायरहित जीव, ईर्यापथ आश्रव होय है । इहां स्वामीके भेदतें आश्रवविषै भेद है । तहां स्वामी दोय हैं, सकषयी जीव अकषायी जीव । तहां कषाय जे क्रोधादिक ते कषायसारिखे हैं । जैसैं फिटकडी लोध आदि कषायले द्रव्य होय हैं, ते वस्त्रके रंग लगनेकूं कारण हैं; तैसें ए क्रोधादिकभी आत्मा के कर्म लेपके कारण हैं । तातें इनकुंभी कषाय कहिये हैं । ऐसें कषायनिकरि सहित होय ताकूं सकषायी कहिये । बहुरि कषायरहित होय सो अकषायी है । बहुरि संपराय नाम संसारका है, सो जाका संसार प्रयोजन है ऐसा जो कर्म ताकूं सांपरायिक कर्म कहिये । बहुरि ईर्याभाव योगनिकी गतिका है तिसहीकरि कर्म आवै, ताकूं ईर्यापथकर्म कहिये | इनका यथासंख्य संबंध करना। तहां सकषायी मिथ्यादृष्टीकूं आदि देकरि जीव हैं, तिनकै तो सांपराय
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