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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ पष्ठ अध्याय ॥ पान ४९०॥
है। इनके वशतें विनाजाणे प्रवृत्ति करना, सो अज्ञातभाव है। पुरुषका प्रयोजन जाकै आधार होय सो वस्तु द्रव्य अधिकरण है। द्रव्यकी शक्ति सो वीर्य है। बहुरि कषायनिके स्थानक असंख्यातलोकप्रमाण है । तातें जीवनिके भाव बहुत हैं। तातें तिनका अभावमें विशेष जनना । बहुरि अनुभागके भेदतें आश्रवनिविभी भेदसिद्धि हो है । इसहीते जीवनिकै शरीरादिकका अनंतपणा सिद्ध है । ऐसा भावार्थ जानना ॥
आगें पूछे है, जो, अधिकरण कह्या ताका स्वरूप जान्या नाहीं, सो कहौ। ऐसे पूछ तिस अधिकरणके भेदके प्रतिपादनके द्वारकरि ताका स्वरूपका निर्णयके अर्थि सूत्र कहे हैं
॥अधिकरणं जीवाजीवाः ॥७॥ याका अर्थ- आश्रवका अधिकरण जीवद्रव्य अजीवद्रव्य ऐसें दोयभेद लिये है। तहां | जीव अजीवका लक्षण पहले कह्या तेही हैं । इहां अधिकरणविशेष जनावनेकू फेरि नाम कहे हैं। सो अधिकरण हिंसाआदिका उपकरणपणा है । इहां कोई कहै, जीव अजीव मूलपदार्थ दोयही हैं। ताते सूत्रमें द्विवचन चाहिये । ता• कहिये, ऐसें नाहीं है । इहां अधिकरणसामान्य नाहीं है । | जीव अजीवके पर्याय अधिकरण हैं। तातें जिसतिस पर्यायसहित द्रव्य बहुतप्रकार हैं । तातें बहु
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