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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ।। षष्ठ अध्याय ॥ पान ४८८ ॥
प्रवृत्तिके कारण प्रमत्तगुणस्थानतांईही है, कषायतें आश्रव अप्रमत्तादिकविषैभी हैं । जो इन्द्रियही कहिये कषाय नही कहिये तौ अप्रमत्तादिकविषै आश्रव न ठहरै । बहुरि एकेन्द्रियादि असंज्ञीपंचेन्द्रिय जीवनपर्यंत यथासंभव इन्द्रियमनका अभाव होतेंभी क्रोधादिनिमित्ततें आश्रव होय है सो न ठहरै | बहुरि कोई कहै कषायहीतें आश्रव है, तातें इन्द्रियादिक काहेकूं कहना ? ताकूं कहिये, सत्तारूप कषायकर्मका सद्भाव उपशांतकषायविषैभी है । ताके सांपराय आश्रवका प्रसंग आवै तथा योगनिमित्तक आश्रव तहांभी है, ताका अप्रसंग आवै है । तातें कषायमात्रही कहना युक्त नाहीं । बहुरि कोई कहै अत्रतही कहना, यामें इन्द्रियादि सर्व आगये । ताकूं कहिये, अव्रत तो भावमात्र, है, ताकी प्रवृत्ति इन्द्रियादिकरूप है, सो कहेविना कैसें जानिये ? तातें इन्द्रिय कषाय अत्रत किया च्याखौंही कहना युक्त है ॥
आगें इहां कोई कहै है, जो, मन वचन काय योग हैं ते
सर्व आत्माके कार्य हैं, तातें
सर्व संसारीजीवनिकै समान हैं । तातें बंधका फल भोगनेमें विशेष नाहीं है । ऐसा कहतें कहे हैं। जो, यह ऐसें नाहीं हैं । जातें योग सर्वही जीवनिकेँ पाईये हैं । अनंतभेद लिये हैं, सो ऐसा है सो कहिये हैं। ताका सूत्र -
तौऊ तिन जीवनिके परिणाम
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