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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ॥ सर्वार्थसिद्धिवचनका पंडित जयचंदजीकृता ॥ पष्ठ अध्याय ॥ पान ४८३ ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शुभरूप न होनें दे सो पाप है । सो असातावेदनीय आदिक हैं | आगे पूछे है, जो यहू आश्रव सर्व संसारी जीवनिकै समानफलका कारण है, कि किछु विशेष है? ऐसें पूछें सूत्र कहै हैं ॥ सकषायाकषाययोः साम्परायिकेर्यापथयोः ॥ ४॥ याका अर्थ · - कषायसहित जीवकै तौ सांपरायिक आश्रव होय है । बहुरि कषायरहित जीव, ईर्यापथ आश्रव होय है । इहां स्वामीके भेदतें आश्रवविषै भेद है । तहां स्वामी दोय हैं, सकषयी जीव अकषायी जीव । तहां कषाय जे क्रोधादिक ते कषायसारिखे हैं । जैसैं फिटकडी लोध आदि कषायले द्रव्य होय हैं, ते वस्त्रके रंग लगनेकूं कारण हैं; तैसें ए क्रोधादिकभी आत्मा के कर्म लेपके कारण हैं । तातें इनकुंभी कषाय कहिये हैं । ऐसें कषायनिकरि सहित होय ताकूं सकषायी कहिये । बहुरि कषायरहित होय सो अकषायी है । बहुरि संपराय नाम संसारका है, सो जाका संसार प्रयोजन है ऐसा जो कर्म ताकूं सांपरायिक कर्म कहिये । बहुरि ईर्याभाव योगनिकी गतिका है तिसहीकरि कर्म आवै, ताकूं ईर्यापथकर्म कहिये | इनका यथासंख्य संबंध करना। तहां सकषायी मिथ्यादृष्टीकूं आदि देकरि जीव हैं, तिनकै तो सांपराय For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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