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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ सर्वाथसिद्धिवनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ पंचम अध्याय ॥ पान ४८२ ॥ याका अर्थ- शुभयोग तौ पुण्यका आश्रव करै है । अशुभ योग पापका आश्रव करै है । तहां शुभयोग कहा ? अशुभयोग कहा? सो कहिये हैं । प्राणनिका घात अदत्तका ग्रहण मैथुनसेवन इत्यादिक तो अशुभका योग है। झूठ बोलना कठोरवचन कहना ऐसें असत्यवचन आदि अशुभ वचनयोग है । परका घातका चितवन करना, ईर्षा राखनी, अदेखसाभाव करना इत्यादि | अशुभमनोयोग है । यातें उलटा शुभयोग है। तहां अहिंसा अस्तेय ब्रह्मचर्यादिक शुभकाययोग | है । सत्यवचन हितमित भाषण आदि शुभवचनयोग है। अरहंतआदिविर्षे भक्ति स्तवविर्षे रुचि शास्त्रआदिविर्षे विनय आदि प्रवृत्ति ए शुभमनोयोग हैं । इहां प्रश्न, जो, योगकें शुभ अशुभ परिणाम कैसे ? ताका उत्तर, जो, शुभपरिणामकरि निपज्या योग सो तौ शुभ है । बहुरि जो अशुभपरिणामकरि निपज्या सो अशुभयोग है । बहुरि | शुभअशुभकर्मके कारणपणातें शुभअशुभयोग नाहीं हैं। जो ऐसा होय तौ शुभयोगही न ठहरै । जातें शुभयोगते ज्ञानावरणादि घातियाकर्म पापरूप हैं, तिनकाभी आश्रव होय है। तातें पापका | कारण शुभयोग नाहीं ठहरै। तहां जो कर्म आत्माकू पवित्र करै, अथवा याकरि आत्मा पवित्र होय ऐसें पुण्य कहिये । सो सातावेदनीय आदिक हैं। बहुरि आत्मानं शुभते पाति कहिये राखे । For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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