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॥ सर्वार्थसिद्धिवपनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ पंचम अध्याय ॥ पान ४५० ॥ आदि पुद्गलके विकार हैं । ए जिनके होय ते सर्व पुद्गल हैं ।
बहुरि सूत्रमें चशब्द है तातें प्रेरणा अभिघात आदिभी जाकें होय तेभी लेणा । ते आगममें प्रसिद्ध हैं, तिनका समुच्चय करै हैं । इहां केई अन्यमती शब्दकू आकाशका गुण कहै हैं । केई अमूर्तिक द्रव्य कहै हैं । केई स्फोटस्वरूप कहै हैं । सो यह कहना प्रमाणसिद्ध नाहीं। शब्द है सो श्रोत्रइन्द्रियका विषय है । आकाश अमूर्तिक है तातें ताका गुण नाहीं। तथा अमूर्तिक द्रव्यभी नाहीं । बहुरि स्फोटरूप कहै सो अर्थका प्रगट करनेवाला स्फोट तो वक्ताका ज्ञान है । अर शब्द श्रवणमें आवे है, सो है, अन्य कछू न्यारा स्फोट प्रमाणसिद्ध नाहीं । तातें पुद्गलद्रव्यका पर्याय कहनाही प्रमाणसिद्ध है । याकी चरचा वार्तिकमें विशेषकरि है, तहातै जाननी ।। आगे कहे जे पुद्गलद्रव्य तिनके भेद दिखावनेकू सूत्र कहै हैं
॥ अणवः स्कन्धाश्च ॥२५॥ याका अर्थ- पुद्गलद्रव्यके अणु स्कंध ऐसें दोय भेद हैं। तहां एकप्रदेशमात्र है अर स्पर्शआदि पर्यायनिकी उपजावनेकी सामर्थ्ययुक्त है, ऐसें अण्यन्ते कहिये कहनेमें आवे ते अणु हैं । , सूक्ष्मपणातें आपही तौ जिनकै आदि है आपही अंत है आपही मध्य है । इहां उक्तंच गाथा है, |
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