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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ पंचम अध्याय ॥ पान ४७२ ॥
व्ययुक्तं सत् ऐसा तथा गुणपयार्यवद्द्द्द्रव्यं ऐसा दोऊही लक्षण कालके विद्यमान है । तहां प्रथम तौ श्रन्यपणा काल है । जातैं स्वभावही व्यवस्थिति है । सो धौव्यपणा स्वकारणकृत है, काहू अन्यका किया नांही । बहुरि व्यय उत्पाद ये दोऊ अगुरुलघुगुणकी हानिवृद्धि की अपेक्षा स्वभावकृतही हैं । बहुरि परद्रव्यके परिणामनिकी अपेक्षा परकृतभी हैं । बहुरि गुण साधारण तथा असाधारण दोऊही कालके हैं । तहां असाधारणता सर्वद्रव्यनिपरि वर्तनाहेतुपणा है । अर साधारण अचेतनपणा अमूर्तिकपणा सूक्ष्मर्पणा अगुरुलघुपणा इत्यादिक है । बहुरि पर्याय उत्पाद व्यवरूप हो हैं, ते ही । तातें दोयप्रकारके लक्षणसहितपणातें आकाशआदिकीज्यों कालकै द्रव्यपणां प्रसिद्ध है । ताका अस्तित्वका चिह्न धर्मआदि द्रव्यकीज्यों पूर्वै कह्याही था, जो वर्तनालक्षण काल है ॥
इहां प्रश्न, जो, इहां कालद्रव्य कह्या अर धर्मआदि द्रव्य कहे थे, तहांही न कह्या, सो याका कहां प्रयोजन ? अजीव काया धर्माधर्माकाशकालपुद्गला ऐसैं क्यों न कह्या ? ताका समाधान, जो, तहां कहते तो कालके कायपणा ठहरता, सो याकै कायपणा नाहीं है । जातें कालके मुख्यपर्णे तथा उपचारकरिभी प्रदेशनिका प्रचयंकी कल्पना नाहीं है । धर्मादिककें तौ पूर्वै मुख्य प्रदेशनिका प्रचय कह्याही है असंख्येयाः प्रदेशा इत्यादि सूत्रमें । बहुरि पुद्गलपरमाणु एकप्रदेशमात्र हैं तौऊ
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