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॥ सर्वार्थसिदिवचानका पंडित जयचंदजीकृता ॥ षष्ठ अध्याय ॥ पान ४८०॥ इहां भावार्थ ऐसा, जो, मनवचनकायके निमित्त आत्माके. प्रदेशनिका चलना, सो योग है । बहुरि इहां वीर्यांतराय ज्ञानावरणका क्षयोपशमजनित लब्धिरूप शक्ति कही, सो इनका क्षय होतेंभी कायवचनमनकी वर्गणाके निमित्तते सयोगकेवली आत्माके प्रदेशनिका चलना है, | तातें तहांभी योम जानना ।।
आगे शिष्य कहै है, जो, तीनिप्रकार योग कहे ते हम जाने, परंतु प्रकरण आस्रवका है, सो अब को, आस्रवका लक्षण। कहा है ? ऐसें पूछे कहै हैं, जो, यह योगशब्दकरि कहिये सो संसारी जीवके आस्रव है ऐसा सूत्र कहै हैं
॥स आस्रवः ॥२॥ याका अर्थ- कह्या जो योग सो आस्रव है। जैसे सरोवरके जल आवनेका द्वार होय | सो जलके आवने कू कारण है, ताकू आस्रव ऐसा कहिये, तैसें इहांभी योगद्वारकरि आत्माकै
कर्म आवै है, तातें योगही आस्रव है । ऐसा नामके योग्य है । इहां ऐसाभी दृष्टान्त जानना। जैसें आला वस्त्र चौगिरदतें आई रजकू ग्रहण करै है तथा लोहका पिंड अमिकरि तपाये जलकू खेंचे | है, तैसें कषायनिकरि सहित जीव.योगद्वारकरि आये कर्मकू सर्व अपने प्रदेशनिकरि ग्रहण करे है ।।
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