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॥ सर्वायसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ।। पंचम अध्याय ॥ पान ४७० ॥
रूप जो द्रव्य ताकूं कथंचित् संज्ञा संख्या लक्षण प्रयोजनादिकी अपेक्षा न्यारा पदार्थ मानना योग्य है | इहां प्रश्न, जो द्रव्यका लक्षण सत् ऐसा पहलें तौ कह्याही था, यह दूसरा लक्षण कहनेका कहा प्रयोजन है ? ताका उत्तर, पहले सत् लक्षण कह्या, सो तौ शुद्धद्रव्यका लक्षण हैं, सो एक है, सो सामान्य है, अभेद है, याकूं महान द्रव्यभी कहिये, जातें सर्व वस्तु है सो सत्ताकूं उल्लंघि नाहीं वर्तें हैं । सर्वद्रव्य सर्वपर्यायसत्ताके विशेषण हैं । जाकूं ज्ञानगोचर तथा वचनगोचर • कहिये सो सर्व सत्तामयी है । बहुरि द्रव्य अनेक हैं, तिनका भिन्नव्यवहार करने कूं यह गुणपर्यायसहितपणा दूजा लक्षण कह्या । सो यह लक्षण न कहिये तौ द्रव्यनिके गुणपर्याय न्यारेन्यारे हैं, ते द्रव्य न ठहरे, तब सर्वथा सतही द्रव्य ठहरै | चेतन अचेतन आदि द्रव्यनिका लोप होय, तब संसार मोक्ष आदि व्यवहारका भी लोप होय, तातैं दूजा लक्षण युक्त है । तिसही लक्षणतें अशुद्धद्रव्यकी सिद्धि है । जातें सत् द्रव्य दूसरे विशेषणसहित भया, तब दूसरेके मिलापतें अशुद्धता भई । जैसे सत् था सो चेतनतासहित तथा अचेतनतासहित कह्या, तब सत्कें अशुद्धता आई ऐसा अशुद्धद्रव्यभी कहिये, इत्यादि स्याद्वादकरि सिद्ध होय है, सो वार्तिकतें जानना ॥
बहुरि अन्यमती द्रव्यलक्षण अन्यथा कल्पै हैं । केई तौ क्रियावानपणा द्रव्यका लक्षण कहैं हैं ।
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