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॥ सर्वाना पंडित जयचंदजीवा ॥ पंचम अध्याय ॥ पान ४७६ ॥
भेदकी अपेक्षाकरि द्रव्य गुण भेदरूपभी मानें हैं, तथापि तिसतें प्रदेशनिकी अपेक्षाकरि अभेद है । जातें तिस ही परिणाम हैं । सातैं जुदे नाहीं । ऐसें कहते पूछें हैं, जो, तुम परिणाम कवा सो कह्या ताका निश्चय के अर्थ यह सूत्र कया है, जो, धर्म आदि द्रव्य कहे ते जिसस्वरूपकरि परणमे ताकूं तद्भाव कहिये । तद्भावकू तत्वभी कहिये, सोही तद्भाव परिणाम है । सो ऐसा परिणाम दो प्रकार है, अनादिपरिणाम आदिमान् परिणाम । तहां अनादि तौ धर्मादिककें गतिहेतुत्वपणा आदिक हैं, सो सामान्य अपेक्षाकरि है । बहुरि विशेष अपेक्षा सोही परिणाम आदिमान् है । जातें पर्याय हैं ते उपजै हैं, विनशे हैं । तिनकू आदिसहित कहिये । तिनमें च्यारि द्रव्यनिका परिणाम तौ आगमगम्य है । बहुरि जीवबुलका परिणाम कथंचित् प्रत्यक्षगम्य भी है |
इहां कोई कहैं, गुणपर्यांष दोय कहे अर नय द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिक ए दोय कहे । तहाँ तीसरा गुणानिय क्यों न का? ताका समाधान, जो, संक्षेपतें नय दोयही कहे हैं। तहाँ ऐसी विवक्षा है, जो पर्याय दोयप्रकार है । एक सहभावी एक क्रमवर्ती । तातें पर्याय कहने में गुणभी जान लेना । बहुरि नयनिका विस्तार करिये तब द्रव्य शुद्धअशुद्धकरि दोयप्रकार हैं । तैसें पर्यायकै दोय भेकरि सहभावी मवर्ती ऐसे । नमनिकै तीनिकी संख्या भी विरोधरूप नाहीं है ।
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