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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनका पंडित जयचंदजीकृता । पंचम अध्याय । पान ४६९ ॥
तौ ज्ञान आदि जीवके गुण हैं । बहुरि पुद्गल आदिके रूप आदि गुण हैं । बहुरि तिनका विकार विशेषरूपकरि भेदरूप भये ते पर्याय हैं । जैसें घटका ज्ञान पटका ज्ञान क्रोध मान इत्यादि जीवके पर्याय । बहुरि वर्ण गंध तीव्र मंद इत्यादि पुद्गलके पर्याय । बहुरि तिनतें कथंचित् अन्यपणां प्राप्त होता समुदाय है, सो द्रव्यनाम पावै है । जो समुदाय तिन गुणपर्यायनितें सर्वथा अनतरभूत होय जुदा पदार्थ न गिनिये, तौ सर्वहीका अभाव होय, सोही कहिये है |
जो परस्पर भिन्नभिन्नलक्षणस्वरूप गुणपर्याय तिनका समुदाय होतें एक अनर्थान्तरभावतें समु दाय जुदा पदार्थ न मानिये तो सर्वका अभाव होय । जातें ते गुणपर्याय परस्पर न्यारेन्यारे पदार्थ हैं । सो जो प्रत्यक्षरूप गुण हैं, तातैं जुदे पदार्थ रस आदिक हैं, सो जो समुदाय तिस रूपसूं जुदा न ठहरै रूपमात्र समुदाय ठहरै, तब रस आदिक रूपतें न्यारे हैं । तिनतें समुदाय भी न्यारा भया । तब एकरूपमात्र रहने समुदाय न ठहरै । समुदाय तौ बहुतनिका होय, रूप तौ एकही है । समुदाय काहें कहना ? ऐसें समुदायका अभाव आया । याहीतें समुदायी सर्वही समुदायतें जुदे नाहीं, तिनका भी अभाव आया । ऐसें समुदायसमुदायी दोऊका अभाव होतें सर्वका अभाव आया । ऐसें रस आदि के विषैभी जोडना । तातें समुदायकूं जो चाहै है सो गुणपर्यायनि के समुदाय
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