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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ पंचम अध्याय ।। पान ४६७ ॥ मिकपणां होय है । जैसें आला गुडमें मधुर रस बहुत होय तब तामें रेत आय पडै तिनकुं अपने मधुररसरूप करै तिसकू पारिणामिक कहिये, तैसे अन्यभी अधिकगुण होय सो अल्पगुण• अपने परिणामस्वरूप करै है। तातें पहली अवस्थाके अभावपूर्वक तीसरी अवस्था प्रगट होय है । अधिक.. गुण न रह्या हीनगुणभी न भया । ऐसें तीसरी अवस्था भई । ऐसें अधिकरणकै अर हीन गुणकै एकस्वरूपपणां होय है। जो ऐसें न मानिये तौ शुक्ल कृष्ण तंतृनिका एक रस्सा करै तिनके तारनिकै संयोग होतेंभी एकरूपपरिणाम नाही भया, धौला काला तार जुदे जुदे दीखवौ करै; तैसैं ठहरै । सो ऐसे है नाहीं। अधिकगुण हीनगुणका ऐसा एक परिणाम होय, जो, जुदाजुदा न दीखै ऐसा जानना । ऐसें कह्या जो पारिणामिकपणाकरि बंध तिसके होतें ज्ञानावरणादिक कर्मकी तीस कोडाकोडी सागर आदिकी स्थिति संभव है।
आगे “उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्" ऐसा द्रव्यका लक्षण कह्या । अब अन्यप्रकारकरि द्रव्यका लक्षण कहें हैं
॥ गुणपर्ययवद्राव्यम् ॥ ३९ ॥ याका अर्थ- गुण अर पर्याय इनकरि सहित द्रव्य है । इहां गुणपर्याय जाकें होय सो द्रव्य
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