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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ पंचम अध्याय ॥ पान ४६५ ॥ स्निग्धके पांचगुण स्निग्धकरि तथा छहगुण स्निग्धकरि तथा सात आठ आदि संख्यात असंख्यात अनंतगुण स्निग्धकरिभी बंध नाहीं होय है । ऐसें तीनिगुण स्निग्ध पांचगुण स्निग्धकरि बंध होय है । तिससिवाय एक दोय तीनि च्यारि तथा छह सात आदि अनंतपर्यंत गुणसहित परमाणुनिकरि बंध नाहीं है । बहुरि च्यारिगुण स्निग्धपरमाणुक छहगुण स्निग्धपरमाणुकरि बंध होय है । वाकी पहले तथा अगिले गुणसहित परमाणुनिकरि बंध नाहीं है । ऐसेंही दोयगुण अधिक सर्वके विर्षे जोडना । बहुरि तैसेंही एक दोय तीनिगुण रूक्षपरमाणुनिकरि दोयगुण रूक्षपरमाणुकै बंध नाहीं है । च्यारिगुणरूक्षपरमाणुकै बंध होय है। तिसकै पांचगुणरूक्षादिकरि बंध नाहीं है। ऎसैंही तीनिगुण रूक्षादिकभी दोयगुण अधिककरि बंध जानना । ऐसेंही भिन्न जाति जे रूक्षके सचिक्कण ताकरि दोय. गुण अधिककरि बंध जानना ॥
इहां उक्तं च गाथा है, ताका अर्थ-स्निग्धके स्निग्धकरि दोयगुण अधिककरि बंध होय है । तथा रूक्षके रूक्षकरि दोयगुण अधिककरि बंध होय है । जघन्यगुण वर्जिकरि समगुण होऊ तथा विषमगुण होऊ दोयगुण अधिकहीकरि बंध है अन्यकरि नाहीं है । बहुरि सूत्रमें तु शब्द है सो पहले दोय सत्रकै निषेधके अर्थि है । तिस निषेधका व्यावर्तनके अर्थ है । तथा बंधकी विधिकू जनावै
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