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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ पंचम अध्याय ॥ पान ४५६ ॥ अर्थ है । तातें उत्पाद व्यय ध्रौव्यस्वरूप सत् है, ऐसा अर्थ निर्दोष है । तातें इहां ऐसा सिद्ध होय है, जो, उत्पाद आदि तीनि तौ द्रव्यके लक्षण हैं । अरु द्रव्य लक्ष्य है। तहाँ पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षाकरि तौ तीनूही द्रव्यतें तथा परस्पर अन्यअन्य पदार्थ हैं। बहुरि द्रव्यार्थिकनयकी अपेक्षाकरि जुदे नाहीं दीखे हैं। तातें द्रव्यतें तथा परस्पर एकही पदार्थ है। ऐसें भेदाभेदनयकी अपेक्षाकरि | लक्ष्यलक्षणभावकी सिद्धि हो है ॥
इहां कोई कहै है, जो, प्रौव्य तौ द्रव्यका लक्षण अर उत्पाद व्यय पर्यायका लक्षण ऐसें कहना था, यामें विरोध न आवता, त्रयात्मक द्रव्यहीका लक्षण कहने में विरोध है। ताका समाधान जो, ऐसें कहना अयुक्त है। जातें सत्ता तौ एक है सोही द्रव्य है । ताके अनंत पर्याय हैं । द्रव्यपर्यायकी न्यारी न्यारी दोय सत्ता नाहीं है । बहुरि एकान्तकरि धौव्यहीकू सत् कहिये तो उत्पादव्ययरूप प्रत्यक्ष व्यवहारकै असत्पणां आवै । तब सर्व व्यवहारका लोप होय । तथा उत्पादव्ययरूपरूपही एकान्तकरि सत् कहिये तो पूर्वापरका जोडरूप नित्यभावविनाभी सर्वव्यवहारका लोप होय । तातें | त्रयात्मक सत्ही प्रमाणसिद्ध है, ऐसाही वस्तुस्वभाव है, सो कहनेमें आवै है ॥
आगै पूछ है कि 'नित्यावस्थितान्यरूपाणि' इस सूत्रमें नित्य कह्या, सो नित्यका स्वरूप न
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