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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ पंचम अध्याय ॥ पान ४६० ॥ सर्व विरुद्ध पक्षमें आयें हैं । तातें विरोधरूप अनेकधर्मस्वरूपकी सिद्धि नाहीं॥
ऐसें दूषण बतावै । ताईं कहिये, जो, ये दृषण जे सर्वथा एकान्तपक्षकरि ऐसे अनेकधर्म वस्तु इहैं, तिनकै आवै हैं। बहुरि अनेकधर्मविरुद्धरूप एकवस्तुमें संभवै हैं, तिनकू द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिक नयकी अर्पणका विधानकरि प्रयोजनके वशतें मुख्यगौणकरि कहिये । तामें दूषण नाहीं। स्यादाद बडा बलवान है, जो, ऐसें भी विरोधरूपकू अविरोधरूपकरि कहै है । सर्वथा एकातकी यह सामर्थ्य नहीं, जो, वस्तुकू साधे । जैसा कहैगा, तैसेंही दूषण आवेगा । तातें स्याद्वादका सरणा ले वस्तुका यथार्थज्ञानकरि श्रद्धानकरि हेयोपादेय जानि हेयतें छूटि उपादेयरूप होय वीतराग होना योग्य है, यह श्रीगुरुनिका उपदेश है ॥
आगें पूछे है कि, सत्कै अनेकनयका व्यवहारका आधीनपणा है । तातें स्कंधनिकै भेदसंघाततै उत्पत्ति वणे है । परन्तु यह संदेह रह्या, जो, दोय परमाणुका आदिका संघात होय है । सो संयोगमात्रतेंही होय है, कि कोई और विशेष है? ऐसें पूछे कहै है, जो, संयोग होते एकत्वपणारूप बंधानतें संघातकी निष्पत्ति होय है । फेरि पूछे है, जो, ऐसें है तौ पुद्गल जातिकू छोडे नाही, अरु संयोग होयही, तब केई परमाणुनिकै तौ बंध होय, बहुरि अन्य केईके न होय, सो याका
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