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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ पंचम अध्याय ॥ पान ४५८॥
॥अर्पितानर्पितसिद्धेः ॥ ३२॥ याका अर्थ- अर्पित कहिये जो मुख्य करिये सो, तथा अनर्पित कहिये जो गौण करिये सो, इन दोऊ नयकरि अनेकधर्मस्वरूप वस्तुका कहना सिद्ध होय है। तहां अनेक धर्मस्वरूप जो वस्तु ताकू प्रयोजनके वशतें जिस कोई एकधर्मकी विवक्षाकरि पाया है प्रधानपणा जाने सो अर्पित कहिये ताकू उपनीत अभ्युपगत ऐसाभी कहिये। भावार्थ- जिस धर्मकुं वक्ता प्रयोजनके वश” प्रधानकरि कहै सो अर्पित है, यातें विपरीत जाकी विवक्षा न करै सो अनर्पित है । जातें जाका प्रयोजन नाहीं । बहुरि ऐसा नाही, जो, वस्तुमें धर्म नाहीं । ताकू गौणकरि विवक्षातें करै है। जाते | विवक्षा तथा अविवक्षा दोऊही सत्की होय है। तातें सवरूप होय ताकू प्रयोजनके वशतें अविवक्षा | करिये सो गौण है । तातें दोऊमें वस्तुकी सिद्धि है। यामें विरोध नाहीं है । इहां उदाहरण, जैसैं
पुरुषके पिता पुत्र भ्राता भाणिजो इत्यादि संबंध हैं ते जनकपणां आदिकी अपेक्षातें विरोधरूप | है। नाहीं। जातें अर्पणका भेदतें पुत्रकी अपेक्षा तो पिता कहिये । बहुरि तिसही पुरुषकू पिताकी |
अपेक्षा पुत्र कहिये भाईकी अपेक्षा भाई कहिये मामाकी अपेक्षा भाणिजो कहिये इत्यादि । तैसेंही | वस्तुकी सामान्यअर्पणातें नित्य कहिये । विषेशअर्पणातें अनित्य कहिये । मामें विरोध नाहीं । बहुरि |
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