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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ पंचम अध्याय ॥ पान ४५९ ॥ ते सामान्यविशेष हैं। ते कथंचित् भेदअभेदकरि व्यवहारके कारण होय हैं ।
इहां सत् असत्. एकानेक नित्यानित्य भेदाभेद इत्यादि अनेक धर्मात्मक वस्तुके कहने में अन्यमती विरोध आदि दृषण बताते हैं। तहां सत् असत् दोऊ एकवस्तुविर्षे कहिये तो दोऊ प्रतिपक्षी || हैं, तिनकै विरोध आवेही । तथा दोऊनिका एक आधार कैसे होय? ताते वैयधिकरण्य दूषण आवै | है। दोऊकै एक आधारका अभाव है। बहुरि परस्पराश्रय कहिये सत् असत्कै आश्रय कहिये, तो पहले असत् होय तो आश्रय बणै । सो असत्कं सत्कै आश्रय कहतें पहली सत् नाहीं है। ऐसे दोऊका अभावरूप परस्पर आश्रय नामा दूषण है। बहुरि सत् काहेकरि है? तहां कहिये असतकरि है। तहां पूछिये है, असत् काहेकरि है तहां कहैं ? अन्य सत्करि । फेरि पूछिये है, अन्य सत् काहेकरि है? तहां कहै, अन्य असत्करि । ऐसें कहूं ठहरना नाहीं। तातें अनवस्थादृषण है। बहुरि . सत्य असत् मिलै असत्में सत् मिलै , तब व्यतिकरदूषण है । बहुरि सत्तें असत् होय जाय, अस
त्ते सत होय जाय, तहां संकरदूषण है । बहुरि सत्की प्रतिपत्ति होय तहां असत्की प्रतिपत्ति नाहीं। | असक्की प्रतिपत्ति है, तहां सत्की प्रतिपत्ति नाहीं। ऐसे अप्रतिपत्तिदूषण है । बहुरि सत् होतें अ| सत्का अभाव, असत् होते सत्का अभाव, ऐसे अभाव नामा दूषण है । ऐसेंही ए आठ दूषण
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