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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ पंचम अध्याय ॥ पान ४५१ ॥ | ताका अर्थ; जाके आपही आदि है आपही मध्य है आपही अंत्य है इन्द्रियगोचर नाहीं है, जाका दसरा विभाग नाहीं होय है ऐसा परमाण द्रव्य जानं ।। बहरि स्थूलपणाकरि जाके ग्रहणनिक्षेपणरूप व्यापारका स्कंधन होय ताकी स्कंध ऐसी संज्ञा उपजै है, इहां दोय अणुआदिके स्कंधके ग्रहणनिक्षेपणाके व्यापारकी योग्यता नाहीं है तौभी रूढिके वशतें स्कंधसंज्ञा जाननी । रूदिविर्षे क्रिया कहूं एक हुई सती उपलक्षणपणाकरि आश्रय कीजिये है । बहुरि पुद्गलनिके अनंत भेद हैं। तौऊ अणु स्कंध इन दोऊमें जाति अपेक्षा गर्भित है, तिसही अर्थि सूत्रमें दोऊकै बहुवचन है । बहुरि दोय भेदका कहना पूर्व दोय सूत्र कहे तिनकाभी संबंध जनावै है । अणु हैं ते तो स्पर्श रस गंध वर्णवान हैं । बहुरि स्कंध हैं ते स्पर्श रस गंध वर्णवानभी हैं अर शद बंध सौक्ष्म्य स्थूल संस्थान भेद तम छाया आतप उद्योतवान्भी हैं। बहुरि परमाणु अतीन्द्रिय हैं । तिनका अस्तित्व शरीर इन्द्रिय पृथ्वी आदि स्कंधनामा कार्यनितें जानिये है । जातें कार्य कारणका अनुमान होय | है। ए स्कंध हैं ते परमाणुनिके कार्य हैं ॥
बहुरि अनंतपरमाणु बंधानरूप होय सो स्कंध है ताका आधा स्कंधदेश कहिये । ताकामी आधा स्कंधप्रदेश कहिये । तिनकेही भेद पृथिवी अप तेज वायु आदिक हैं ।।
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