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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ पंचम अध्याय ॥ पान ४२३ ॥ विर्षे रूपआदिक हैं, शरीरविर्षे हस्त आदि हैं, ऐसे लोकविर्षे कहिये है । बहुरि पूछे है, लोक कहा? जामें धर्म आदिका अवगाह कहिये । तहां कहिये, धर्म आदि द्रव्य जामें देखिए सो लोक है । ऐसें लोकशब्दकै अधिकरणसाधन सन प्रत्यय है । ऐसें आकाशके दोय भेद भये हैं, लोकाकाश अलोकाकाश । सो लोक जामें है सो तो लोकाकाश है यातें बाहिर अलोकाकाश । सो सर्वतरफ अनंत है । ऐसें लोकालोकका विभाग धर्मास्तिकाय तथा अधर्मास्तिकायके सद्भावअभावतें जानना। जो धर्मास्तिकाय न होय तौ पुद्गलजीवनिका गमनका नियमका कारणका अभावते लोकालोकका विभाग न होय । तथा अधर्मास्तिकाय न होय तौ स्थितिका आश्रयका निमित्तका अभावतें स्थितिका अभाव होय तबभी लोकालोकविभागका अभाव होय । तातें तिन दोऊके सद्भावतेंही लोकअलोकका विभागसिद्धि होय है ॥
आगे, लोकाकाशविर्षे जिनका अवगाह है, तिनके अवस्थानविर्षे विशेष है, ताके जाननेकू सूत्र कहें हैं
॥धर्माधर्मयोः कृत्स्ने ॥ १३॥ याका अर्थ- धर्मद्रव्य अधर्मद्रव्य इन दोऊनिका अवगाह समस्तलोकाकाशमें है । इहां
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