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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ पंचम अ पाय । पान ४२४ ॥ कृत्स्न ऐसा वचन है सो सर्वलोकवि व्याप्तिके दिखावनेकू है जैसे घरकेवि घट तिष्ठे, तैसें ए धर्म अधर्म द्रव्य लोकमें नाहीं तिष्ठे हैं । जैसे तिलनिविर्षे ते तिष्ठे तैसें व्यापक हैं । बहुरि इनके अवगाहनकी सामर्थ्यके योगते परस्पर प्रदेशका प्रवेशतें व्याघा नाहीं है । जातें ये अमूर्तिक हैं। मूर्तिकभी एकपात्रवि जल भस्म धूलि घालिये तिनके परस्पर व्याघात नाही हो है , तो अमूर्तिककै कैसे होय ? बहुरि अनादिते संबंध है, तातें अविरोध है ।
आगें, मूर्तिक जे पुद्गलद्रव्य तिनकै एकप्रदेशतें लगाय ख्यात असंख्यात अनंत प्रदेशताईके स्कंध हैं, तिनका अवगाहका विशेष जाननेकू सूत्र कहे हैं -
॥ एकप्रदेशादिषु भाज्यः पुद्गलानाम् ॥ १४॥ याका अर्थ- पुद्गलद्रव्यका अवगाह आकाशके लोकवे एक प्रदेशतें लगाय असंख्यात प्रदेशताई एक दोय आदि भाज्यरूप प्रदेशनिविर्षे है ॥ इहां एकप्रशादिषु इसका समास अवयवकरि कीया है, तातें समुदाय जानना । तहां एकप्रदेशभी लेणा। सोही कहिये है । एक आकाशके प्रदेशविर्षे एक परमाणुकाभी अवगाह है । बहुरि दोय आदि संख्यात असंख्यात अनंतके स्कंध सूक्ष्म परणाये तिनकाभी है । बहुरि दोय परमाणु खुली तथा बंधीका दोय प्रदेशमें अवगाह है ।
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