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।। सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ पंचम अध्याय ॥ पान ४३७ ॥ स्पर्शवान पवन है सो अन्य वनस्पति आदिकौं चलावनेका कारण देखिये है । अदृष्टगुण है सो पवनकीज्यौं नाहीं । तातें अन्यविर्षे क्रियाका कारण नाहीं ।।
बहुरि वीर्यान्तराय ज्ञानावरणकर्मका क्षयोपशम अंगोपांग नामा नामकर्मका उदयकी है अपेक्षा जाके ऐसा जो आत्मा ताकरि ऊंचा लिया जो कोठेते पवन सो उछ्वास, ताकू तो प्राण कहिये । बहुरि तिसही आत्माकरि बाहिरका पवन अंतर किया सो निश्वास है, ताकू अपान कहिये। ते दोऊही आत्माके उपकारी हैं, जीवितव्यके कारण हैं, तेभी पदलमयी हैं। ऐसैं मन प्राण अपान ए मूर्तिक हैं । जातें इनका मूर्तिकद्रव्यकरि प्रतिघात आदि देखिये है। तहां भयके कारण जे अशनिपात आदि शब्द तिनकरि मनका प्रतिघात देखिये ये है। बहुरि मदिरापान आदिकरि चित्तभ्रम होनेते अभिभव कहिये तिरस्कार कहूंका कहूं चला जाना देखिये है। बहुरि हस्ततें मुख दाबने” प्राण अपान कहिये उच्छ्वास निश्वासका प्रतीघात कहिये रुकना देखिये है । बहुरि | श्लेष्मकफकरि अभिभव तिरस्कार देखिो है । जो ए अमूर्तिक होय तो मूर्तिककरि नाही रुकै ।
बहुरि प्राण अपान आदि क्रिया हैं, तिनतें आत्माका अस्तित्व जान्या जाय है। जैसे कलकी | पूतलीकी कलह लावनावाला पुरुष परोक्ष छिप्या कल फेरै, तब पूतली चेष्टा करै । तब जानिये
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