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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ।। पंचम अध्याय ॥ पान ४४२ ॥
पचने का क्रम कालका सूक्ष्म अंशका अनुमानतें निश्चय भया है । ताकूं काल ऐसा नाम कहिये है । सो यह व्यवहारकाल है । ताका नामकूं निमित्त जो निश्चयकाल ताका अस्तित्व जनाव है । जातें गौण होय सो मुख्यविना होय नाहीं ॥
इहां भावार्थ ऐसा, जो, धर्म आदि द्रव्यनिके पर्याय समयसमय पलटें हैं । सो इस पलटनिकूं समय सोही निमित्तमात्र है | तिस समयही कूं कालकी वर्तना कहिये है । यह वर्तनाही काला द्रव्यका अस्तित्व जनावै है । बहुरि इस वर्तनाकूं जेतीवार लागी ताका नाम काल कहिये । सो यह व्यवहारकालसंज्ञा है, सो तिस निश्चयकालकी अपेक्षाहीतें कहिये है । ऐसें यह वर्तना द्रव्यनिकूं कालका उपकार है । बहुरि द्रव्यका पर्यायकूं परिणाम कहिये | कैसा है पर्याय ? पहली अवस्थाकूं छोडि दूसरी अवस्थारूप भया है । बहुरि क्षेत्रसूं क्षेत्रांतरविषै चलनरूप नाहीं है । तहां जीवकै तौ क्रोधआदि परिणाम हैं । बहुरि पुद्गलकें वर्णआदि परिणाम हैं । धर्म अधर्म आकाशर्के अगुरुलघुगुणकी हानिवृद्धिरूप होना परिणाम है । बहुरि क्रिया क्षेत्र अन्य क्षेत्रविषै चलनेरूप है । सो दोयप्रकार है, प्रायोगिकी वैखसिकी। तहां प्रायोगिकी तौ अन्य के प्रयोग होय है । जैसें वलध आदिक प्रयोगतें गाढा आदि चालै । बहुरि वैस्रसिकी विनानिमित्त होय है । जैसें
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