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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ पंचम अध्याय ॥ पान ४४० ॥
है । स्वामी तौ चाकरकूं धन आदि देनेकरि उपकार करे है । चाकर स्वामीकै हितकी वार्ता कहकर अहितका निषेधकरि उपकार करे है । बहुरि आचार्यकै अरु शिष्यकै परस्पर उपकार है । आचार्य तौ शिष्यकूं दोऊ लोकके फलका उपदेशकों दिखावनेकरि तथा तिस उपदेशकथित क्रियाका आचरण करावने करि उपकार करे हैं । बहुरि शिष्य आचार्यको अनुकूलप्रवृत्ति उपकार करै है ||
इहां कोई कहै है, उपकारका तौ अधिकार तौ चल्याही आवे है । सूत्रमें उपग्रहवचन अर्थ है? ताका समाधान, पहले कहे सुख आदिक च्यारि तिनके दिखावनेकूं उपग्रहवचन फेरि का | सुख आदि भी परस्पर जीवनिकै उपकार हैं । इहां परस्पर जीवनिकै उपकार देखने तें ऐसा भी अनुमानप्रमाण करि सिद्ध होय है, जो, जीव नानाही है एकही आत्मा नाही ||
आगें, जो सत्तारूप वस्तु है सो उपकारसहित है, तहा कालद्रव्य भी सत्तास्वरूप है, तातें ताका कहा उपकार है? ऐसें पूछे सूत्र कहै हैं
॥ वर्तनापरिणामक्रियापरत्वापरत्वे च कालस्य ॥ २२ ॥
याका अर्थ - वर्तना परिणाम क्रिया परत्वापरत्व ए कालके उपकार हैं । इहां वृति धातुकें णिच् प्रत्यय प्रयोजनके हेतु कर्ताविषे आवै है । ताके कर्मविषै तथा भावविषै युट् प्रत्ययतें स्त्रीलिं
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