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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ पंचम अध्याय || पान ४४४ ॥ कहना गौग है। जातें यह क्रियावाद जो अन्यद्रव्य ताकी अपेक्षा काल नाम पाया है तथा निश्चयकालकर कीया है । तातें काल नाम है, ऐसें जानना ॥
इहां परिणामकी चर्चा वार्तिकमें विशेष है, तहांतें जाननी । तहां कही है, जो, द्रव्यके निजस्वभावकू न छोडीकरि पर्याय पलटना सो परिणाम है । सो दोयप्रकार है, एक नैमित्तिक एक स्वाभाविक । तहां जीवकै तो औपशमिक आदि पांच भावरूप हैं । पुद्गलके घटादि अनेकरूप हैं । धर्मद्रव्यादिककै अगुरुलघुगुणके हानिवृद्धिपर्यायरूप है । इहां अन्यमती कहै हैं, जो, परिणाम तो निर्वाध संभवे नाहीं। जातें सतरूप कहिये तो विद्यमान पलटना नाहीं। असत् कहिये तो अभावही आया। ताडूं कहिये, स्याद्वादपक्षसूं परिणामकी सिद्धि है । द्रव्यअपेक्षा सत् है । पर्यायापेक्षा असत् है । जैसें मृत्तिका द्रव्य है, पिंड घट आदि पर्याय हैं। तहां पिंडका घट भया तामें द्रव्यापेक्षया पिंडमें माटी है, पर्यायापेक्षया पिंडही कहिये । बहुरि पिंडतें घट भया तब द्रव्यापेक्षया घटमें माटीका पिंड कहिये, पर्यायापेक्षया घटही है, पिंड नाहीं हैं इत्यादि दृष्टांत प्रसिद्ध हैं।
बहुरि पूछै, जो, द्रव्यतें परिणाम अन्य हैं कि अनन्य हैं ? जो अन्य हैं, तो द्रव्यमें नाहीं । अनन्य है तौ द्रव्यही हैं, परिणाम नाहीं । इहांभी पूर्वोक्तही उत्तर है । बहुरि कहै, द्रव्यविर्षे परि
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