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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ पंचम अध्याय ॥ पान ४४६ ॥ | शीत उष्ण चीकणा रूखा ऐसें । बहुरि जाकू स्वाद लीजिये अथवा जो स्वादमात्र सो रस है ।
सो पंचप्रकार है। तीखा खाटा कडा मीठा कसायला ऐसें । बहुरि जाकू मंघिये अथवा मूंघना सो गंध है । सो दोप्रकार है । सुगंध दुर्गंध ऐसै । बहुरि जाकू वर्णरूप देखिये अथवा वर्णरूप होना सो वर्ण है । सो पांचप्रकार है । काला, नीला, पीला, धौला, लाल ऐसें । एते ए मूलभेद हैं इनके उत्तरभेद न्यारेन्यारेके कीजिये। तब स्थानकनिकी अपेक्षा तो संख्यात असंख्यात हैं। बहुरि अविभागप्रतिच्छेदनिकी अपेक्षा अनंतभी हैं । ए जिनकें होंय ते पुद्गल हैं । इहां नित्ययोगविर्षे वत्प्रत्यय है । जैसें वड हैं ते दृधसहित हैं, ताकू क्षीरिणो न्यग्रोधा ' ऐसा कहिये । ऐसें प्रत्यक्षका अर्थ है ।
इहां तक, जो, पूर्व सूत्रमें 'रूपिणः पुद्गलाः' ऐसा कह्या है। तातें रूपते अविनाभावी जो रसादिक तिनका ग्रहण तिसही सूत्रतें होय है, यह सूत्र अनर्थक है । ताका समाधान, जो, | यह दोष नाहीं है । तहां तो 'नित्यावस्थितान्यरूपाणि ' इस सूत्रमें धर्मादिक अरूपी कहे तहां || पुद्गलनिकभी अरूपीपणाका प्रसंग आवै था, ताके दूरि करनेंकू निषेधसूत्र कहा था। बहुरि इहां | यह सूत्र तिन पुद्गलनिका विशेषस्वरूप जाननेकू है । इहां अन्यमती कहै है । पृथ्वी आदिके | | परमाणु जातिभेदरूप हैं । तहां जलविर्षे तो गंधगुण नाहीं है । अमिकेवि गंध रस दोऊ नाहीं हैं।
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