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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ पंचम अध्याय ॥ पान ४४३ ॥
मेघ आदिकें वादल स्वयमेव चालें । बहुरि परत्व अपरत्व दोयप्रकार है, क्षेत्रकृत कालकृत । सो इहां कालका उपकारका प्रकरण है । तातें कालकृत लैणें । बहुतकाल लगै ताकू तो परत्व कहिये । अल्पकालका होय ताकू अपरत्व कहिये । ऐसें ए वर्तना आदि कालके उपकार हैं, सो कालके अस्तित्वकुंभी जनावै हैं॥
इहां तर्क जो, वर्तनाहीके भेद परिणाम आदि हैं । तातें एक वर्तनाही कहना था । तिनका जुदा ग्रहण अनर्थक है । ताका समाधान, जो, अनर्थक नाहीं है । इहां काल दोयप्रकारके सूचनेके अर्थि विस्तार कह्या है। काल दोयप्रकार है, निश्चयकाल व्यवहारकाल । तहां निश्चयकाल तौ वर्त्तनालक्षण है। व्यवहारकाल परिणामादिलक्षण है। यह व्यवहारकाल अन्यपदार्थकरिही तो जान्या जाय है। सूर्यादिकके उदयअस्ततें दिन आदिक जानिये है । बहुरि अन्यके जनावनेकू कारण है । यातें निश्चयकाल जान्या जाय है । ऐसा क्रियाविशेषकू काल ऐसा नाम व्यवहारकाल कहिये है । सो तीन प्रकारका है, भूत वर्तमान अनागत ऐसें । तहां परमार्थ काल जो निश्चयकाल एकएक आकाशके प्रदेशविर्षे तिष्ठते कालाणु तिनकू काल कहना, सो तो मुख्य है । अर भूत आदि नाम कहिये सो गौण है । व्यवहारकालविर्षे भूत आदि नाम है सो मुख्य है। अर काल
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