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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ पंचम अध्याय ॥ पान ४४१ ॥ गवि वर्तना ऐसा शब्द हो है। तहां धर्म आदिक द्रव्य हैं, ते अपने पर्यायनिकी उत्पत्तिरूप वर्ते हैं, सो आपहीकरि वर्ते हैं । सो तिस वर्तनाकू बाह्यनिमित्त चाहिये । जातें बाह्य उपकार निमित्तविना वर्तना होय नाहीं । तहां तिस वर्तनेका समय है सो कालका चिह्न है । तातें तिस द्रव्यनिके प्रवर्त्तावनेहारा कालद्रव्य है । तातें तिस समयस्वरूप वर्तनाकू कालका वर्तना कहिये। याकरि कालका निश्चय कीजिये है । इहां णिच् प्रत्ययका यह अर्थ जो वर्तावै सो काल है । इहां वः तो सर्वद्रव्यनिके पर्याय हैं ताका हेतु का काल है ॥ ___इहां कोई कहे है, जो, ऐसा है तो कालकै क्रियावान्पणा आया । जैसे शिष्य पढ़े हैं उपध्याय पढावै है तब दोऊ क्रिया हो है । ताकू कहिये, इहां दोष नाहीं है । निमित्तमात्रके विभी हेत कर्ताका व्यपदेश है। जैसे शीतकालमें अग्नितें तपते शिष्य पढे है। तहां ऐसैंभी कहिये है, जो, कारी बाकी अमि पढावै है । तैसें इहां कालके हेतु कर्त्तापणा है । बहुरि पूछे है, ऐसा कालका समयका निश्चय कैसे कीजिये ? तहां कहिये है, समय आदि क्रियाविशेष तथा समय आदिकरि कीजिये जे पाक आदि कार्य तिनकू समय तथा पाक इत्यादिक नाम प्रसिद्ध हैं। तिनकू समयकाल तथा भातका पाककाल ऐसा आरोपण कीजिये है । भात अनुक्रमतें पच्या है ताका
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