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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ पंचम अध्याय ॥ पान ४३८ ॥
याकी कल फेरनेवाला कोई पुरुष परोक्ष है । ऐसें शरीरकी श्वासोश्वास आदि चेष्टा आत्माका अस्तित्व जनावे है ॥
आगे जैसे ए शरीर वचन प्राणापान गमन बोलना विचारना उछ्वास लेना इन उपकारनविष हैं; तैसें अन्यभी कोई उपकार ? ऐसें पूछे सूत्र कहै हैं
॥ सुखदुःखजीवितमरणोपग्रहाश्च ॥ २० ॥
याका अर्थ- सुख दुःख जीवना मरना एभी उपकार पुद्गलके जीवनिकूं हैं । साता असातावेदनीयकर्मका उदय अंतरंगकारण होतें अर बाह्य द्रव्य क्षेत्र काल भावके परिपाक के निमित्त उपज्या जो आत्मा र्के प्रीतिरूप तथा क्लेशरूप परिणाम सो सुखदुःख है । बहुरि भवधारणकूं कारण जो आयुनामा कर्म ताके उदयतें भवविषै स्थितिरूप रहता जो जीव ताके पूर्व कहे जे उछ्वासनिश्वासरूप क्रियाविशेष ताका विच्छेद न होना सो जीवित कहिये । बहुरि तिस जीवितव्यका विच्छेद होना सो मरण कहिये । ए च्यारि जीवनिके पुद्गलके किये उपकार हैं । जातें ए मूर्ति - कद्रव्य के निकट होते होय हैं। तातें पुद्गलही के कहिये ||
इहां कोई कहै, उपकारका तौ
अधिकार चल्या आवै है । इस सूत्र में उपग्रहवचन निष्प्रयो
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