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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ पंचम अध्याय ॥ पान ४३५ ॥
संबंधकरि पचै हैं, ते दोऊ पुद्गलमयी हैं। तैसेंही कार्मणभी गुड कंटक मूर्तिकद्रव्यकरि पकै है । गुड बार झडी आदिका दारू बणे, ताईं पीवै तब चित्त विभ्रमरूप होय । तहां ज्ञानावरण दर्शनावरण मोहनीय अंतराय कर्मका उदय आया जानियें। तथा गुड खाये सुख भया, तहां सातावेदनीयका उदय आया कहिये । कांटा लागै तब दुःख होय, तब असताका उदय आया कहिये । इत्यादि बाह्य मूर्तिकद्रव्यके संबंध पचिकरि उदय आवै है, तातें कार्मण पुद्गलमयी है ।।
बहुरि वचन दोयप्रकार है । द्रव्यवचन भाववचन । तहां वीर्यान्तराय मातश्रुतिज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशम होते अंगोपांग नामा नामकर्मके उदयतें आत्माकै बोलनेकी सामर्थ्य होय, सो तो भाववचन है । सो पुद्गलकर्मके निमित्ततें भया तातै पुद्गलका कहिये । बहुरि तिस बोलनेकी सामर्थ्यसहित आत्माकरि कंठ तालुवा जीभ आदि स्थाननिकरि प्रेरे जे पुद्गल, ते वचनरूप परिणये | ते पुद्गलही हैं । ते श्रोत्र इन्द्रियके विषय हैं, औरइन्द्रियके ग्रहणयोग्य नाही हैं । जैसें प्राण इंद्रि
यका विषय गंधद्रव्य है । तिस प्राणके रसादिक ग्रहणयोग्य नाहीं हैं तैसें । बहुरि कोई अन्यमती | कहै है, वचन मूर्तिक हैं । सो अयुक्त हैं । इह वचन मूर्तिक जे इंन्द्रिय ताके तौ ग्रहणमें आवै है । । बहुरि मूर्तिककरि रुकि जाय है । बहुरि मूर्तिककरि विगडि जाय है । बहुरि मूर्तिकके धक्के तिर
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