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॥ सर्वार्थसिद्धिचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ पंचम अध्याय ॥ पान ४३४ ॥
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याका अर्थ- शरीर वचन मन प्राण कहिये उच्छास अपान कहिये निःश्वास ये पुद्गलद्रव्यके जीवकू उपकार हैं । इहां तर्क, जो, पुद्गलका उपकारका प्रश्न कीया था, तुम पुद्गलका लक्षण कह्या, शरीर आदि तो पुद्गलमयी हैं सो यह सूत्र कहना अयुक्त है। ताका समाधान, जो, यह अयुक्त नाहीं है । पुद्गलका लक्षण तो आगे कहेंगे। यह तो जीवनिकै पुद्गलानका उपकारही कहनेकै अर्थि सूत्र है । इहां उपकारहीका प्रकरण है। तहां शरीर तो औदारिक आदि कर्मकी प्रकृतिरूप कहे ते तो सूक्ष्म हैं, ताते इन्द्रियगोचर प्रत्यक्ष नाहीं हैं । बहुरि तिनके उदयकरि भये ऐसें नोकर्मसंचयरूप ते केई इन्द्रियगोचर प्रत्यक्ष हैं । केई इन्द्रियगोचरप्रत्यक्ष नाहीं । तिनके कारण कर्मप्रकृतिः । रूप शरीर है | सोभी इहां गिण लेने । सो ये शरीर पुद्गलमयी हेही । ऐसें जीवनिकै ए होय हैं। तातें पुद्गलके उपकार कहिये । इहां उपकारशब्दका अर्थ भला करणाही न लेना । किछ कार्यकू निमित्त होय ताकू उपकार कहिये है ॥
इहां कोई पूछे, कार्मणशरीर तो आकाररहित है, सो पुद्गलमयी नाहीं । आकारवान् होय ताकू पुद्गलमयी कहना युक्त है । ताकू कहिये, यह युक्त नाहीं है । कार्मणभी पुद्गलमयीही है । तातें ताका उदय है सो मूर्तिवानकें निमित्तः पचिकरि उदय प्रवर्ते है । जैसें तंदुल हैं, ते जल आदिके |
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