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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ पंचम अध्याय ॥ पान ४३३ ॥ अवगाहै हैं, तिनकी अपेक्षा तो अवकाशदान मुख्य है । बहुरि धर्म आदिक नित्यसंबंधरूप निकिय द्रव्य हैं, तिनकी अपेक्षा गौण हैं ।
बहुरि कोई वादी तो आकाशकू अनावरणमात्र अवस्तु कहै है, भीति आदि आवरण दूरि भये अवकाश अनावरण भया सो शून्य है, किछु वस्तु नाहीं । सो यह कहना अयुक्त है । आवरण दूरि भये अवशेषभी परोक्ष वस्तु होय है । बहरि कोई आकाशका शब्द गुण कहै है । सो यहभी अयुक्त है । शब्द इन्द्रियगोचर है, सो मूर्तिक पुद्गलद्रव्यका पर्याय है, आकाश अमूर्तिक है, सो अमूर्तिकका गुण मूर्तिक होय नाहीं । बहुरि कोई अवगाहर्के प्रधानका परिणाम कहै है । सो यहू अयुक्त है । जातें प्रधानका विकार घट आदिकें अनित्यपणा असर्वगतपणा अमूर्तिकपणा है, तैसें आकाशकें नाहीं, तातें प्रधानका धर्म नाहीं । इत्यादि युक्ति” पूर्वोक्त अवगाहधर्मस्वरूप आकाश कह्या, सोही प्रमाणसिद्ध है।
आगेआकाशका तौ उपकार कह्या; अब ताके लगतेही कहे जे पुद्गलद्रव्य तिनका कहा | उपकार है ? ऐसे पूछे सूत्र कहें हैं
॥शरीरवामनःप्राणापानाः पुद्गलानाम् ॥ १९॥
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