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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ पंचम अध्याय ।। पान ४२२॥ आधार है ? ताका उत्तर, जो, आकाश आपहीके आधार है याका अन्य आधार नाहीं । फेरि पूछे है, जो, आकाश आपहीकै आधार है तो धर्मादिकभी आपहीकै आधार क्यों न कहौ? जो धर्मादिककै अन्य आधार है तो आकाशकभी अन्य आधार कल्पा चाहिये । तब अनवस्थादोष आवेगा। ताकू कहिये है, यह दोष नाहीं। जाते आकाश सर्वतें बड़ा है, यातें अधिक परिमाण और नाही, जाकै आधार आकाश कहिये । सर्वतरफ आकाश अनंत है। तातें धर्मादिकक आधार आकाश कहिये है। सो यह व्यवहारनयकरि जानना । बहुरि एवंभूतनयकी अपेक्षा सर्वही द्रव्य अपनेअपने आधार कहिये । जैसे कोई काहूकू पूछे, तू कहां बैठा है ? तब वह कहै, में मेरा
आत्माविर्षे बैठा हौं, ऐसा एवंभूतनयका वचन है । तातें धर्म आदि द्रव्य लोकआकाशतें बाहिर नाहीं हैं । एतावन्मात्र इहां आधारआधेयभाव कहनेका फल है ॥
इहां कोई तर्क करै है, जो, पहली पीछे होय तिनकै आधार आधेय भाव देखिये है । जैसे | कुंडाविर्षे ठौर है । सो ऐसें आकाश पहली होय पीछे तामें धर्मआदिक द्रव्य धरे होय तब आधारा
धेयभाव कहिये । सो ऐसें है नाहीं । तातें व्यवहारनयकरिभी आधारआधेयभाव कहना युक्त नाहीं। ताका समाधान, यह दोष नाहीं। एककाल होय तिनकभी आधाराधेयभाव देखिये है। जैसे घट
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