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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ पंचम अ याय ॥ पान ४२१ ॥
है । जैसे आकाशके एकप्रदेशकें भेदको अभाव है, तातैं अप्रं शपणां कहिये; तैसें परमाणुके प्रदेशमात्रपणातै प्रदेशके भेदका अभाव जानना । जातैं परमाणु अन्य छोटा परमाणु नाहीं । यातें छोटा और होय तो वह प्रदेशका भेद करै । इहां कोई कहै, पराणु अप्रदेश कहिये है, तातें या कै एकप्रदेशभी नाहीं । ताकूं कहिये, एकप्रदेशभी न होय तौ यभी न ठहरै । तातें द्रव्य मानियें
एकप्रदेशभी मानना योग्य है । विनाप्रदेश अवस्तु होय है । इहांताई अजीव तथा जीव ये पंच अस्तिकाय कहे तिनके प्रधानपणाकरि द्रव्यत्व निस्यत्व अवस्थितत्व अरूपत्व एकद्रव्यत्व निःक्रियत्व स्वभाव कहे । गौणभावकरिं पर्यायत्व अनित्यत्व अनवस्थितत्व सरूपत्व अनेकद्रव्यत्व स्वभावभी है । ते विनाक भी गम्यमान जानने । ऐसें द्रव्यार्थिक पर्य्यायार्थिक नयकरि सिद्ध होय है ।
आगे कहे जे धर्मादिकद्रव्य, तिनकी प्रदेशनिका परिमाण तौ कया । अब तिनका आधार जानने कूं सूत्र कहै हैं
॥ लोकाकाशेऽवगाहः ॥ १२ ॥
याका अर्थ - ए कहे जे धर्म आदि द्रव्य तिनका लोक काशविषै अवगाह है बाहिर नाहीं है । इहां कोई पूछे है, जो, धर्म आदि द्रव्यनिका लोकाकाश आधार है, तौ आकाशका कहा
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