________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ पंचम अध्याय ॥ पान ४२७ ॥
॥ प्रदेशसंहारविसर्पाभ्यां प्रदीपवत् ॥ १६॥ याका अर्थ-जीवके प्रदेश लोकबराबरि हैं । तथापि संकोचविस्तारकरि दीपकीज्यों जैसा आधार होय तेते क्षेत्रमें तिष्ठे। आत्मा अमूर्तिक है, तौभी कर्मके अनादिबंध एकतारूप है । तातें कथंचित् मूर्तिकभी कहिये है। बहुरि कार्मणशरीरकरि सहित हैं। ताके वशतें बडे छोटे शरीरमें वसै है । ताके वशतें प्रदेशनिका संकोचविस्तारस्वभाव है, सो तिस शरीरप्रमाण होते सतें लोकके असंख्यातवां भाग आदिविर्षे वृत्ति वणें है। जैसे दीपक चौडे धरै तब तो प्रकाश अमर्याद फैले । बहरि करवा पतोली घर आदिविर्षे धेरै तब आवरणके वशते तेतेही परिमाण प्रकाश होय । इहां संकोचनेका सूके चर्मकाभी दृष्टान्त है । फैलनेका जलविर्षे तेलका दृष्टान्त है । इहां प्रश्न, जौ, ऐसे संकुचै विस्तारै है तो अनित्य ठहरै ? ताका उत्तर, जो, पर्यायनयकरि अनित्य मानियेही है।।
बहुरि प्रश्न, जो, संकुचैतें प्रदेश घट जाते होंयगे । विस्तरितै प्रदेश बढि जाते होंयगे । ताका समाधान, जो, आत्मा अमूर्तिकस्वभाव है, ताकू छोडै नाहीं है, प्रदेश संख्यातलोकप्रमाण हैं, सोही रहै हैं, स्याद्वादनयकरि सर्व अविरुद्ध सधै है । इहां कोई आशंका करै, जो, संकुचै विस्तरै हैं, तो परमाणुबराबरभी कोई कालमें होता होयगा । सो ऐसा नाहीं है । शरीरप्रमाणही होय ||
ॐ
SAFADPARAHANPARINFARPACKFDPAWAFARPACKENPAGGAFARPAGAPAPAR
For Private and Personal Use Only