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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ पंचम अध्याय ॥ पान ४३० ॥ तहां फेरि तर्क, जो, गति स्थिति उपकार धर्म अधर्म द्रव्यका कह्या, सो आकाश सर्वगत है, सो याहीका क्यों न कह्या ? ताकू कहिये, यह अयुक्त है। आकाशका सर्वद्रव्यनिकू अवगाह देना उपकार है। जो एक आकाशहीके दोय उपकार कल्पिये तो लोकअलोकका विभागका अभाव होय ।।
बहुरि कहै, जो, भूमि, जल आदि पदार्थही गतिस्थिति आदि उपकारविर्षे समर्थ हैं। धर्म अधर्म द्रव्यनितें कहा प्रयोजन है ? तहां कहिये हैं, भूमि जल आदिक तो कोई कोई द्रव्यकू एकएक प्रयोजनविर्षे अनुक्रमतें समर्थ हैं । बहुरि धर्म अधर्म द्रव्य हैं ते सर्व जीवपुद्गलकू एककाल गति स्थिति साधारण आश्रय हैं । बहुरि एक कार्यकू अनेक कारण साधै हैं, तहां दोष नाहीं । बहुरि तर्क, जो, धर्म अधर्म द्रव्य दोऊ समानबल हैं सो धर्मद्रव्य तौ गति करावै तिसही काल अधर्मद्रव्य गतिस्थिति करावै, तब विरोध भया, दोऊ एककाल होय नाहीं । ताका समाधान, जो, ए प्रेरकनिमित्त नाही, बलाधाननिमित्त हैं । जीवपुद्गल गमन स्थिति करै तो निमित्त होय, न करै तौ नाही होय ॥
बहुरि तर्क, जो, धर्म अधर्म द्रव्यकी उपलब्धि नाहीं, कोऊके देखने में आये नाही, तातें ए | नाहीं हो हैं । ताका समाधान, जो, ऐसें नाहीं । ए परोक्ष हैं, सो सर्वही मतमें प्रत्यक्ष तथा |
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