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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ द्वितीय अध्याय ॥ पान २२३ ॥ होना सो उपशम है। जैसे कतकादि कहिये निर्मली आदि वस्तुके संबंधतें जलविर्षे कर्दमका | | उपशम होय जलकै पीदै बैठी जाय ऊपरितें जल उज्जल होय जाय, तैसे उपशम जाननां । बहुरि कर्मकी अत्यंतनिर्वृति होय तत्त्वमेंसूं उठि जाय सो क्षय है। जैसे उसही जलकों निर्मल पात्रमैं | लीजिये तब कर्दमका अत्यंत अभाव है। तैसें क्षय जाननां । बहुरि उपशमभी क्षयभी दोऊ स्वरूप होय तहां मिश्र है। जैसे तिसही जलविर्षे कतकादि द्रव्य डारै कर्दमका क्षीणाक्षीणवृत्ति कहिये किछु तो पीदै बैठ्या किछू गलदाई रही किछु बाहरि निकस्या, तैसें क्षयोपशम जाननां । | बहुरि द्रव्य क्षेत्र काल भावके निमित्ततें कर्मके फलकी प्राप्ति कहिये उदय आवनां प्रकट होनां सो | उदय है । बहुरि द्रव्यका आत्मलाभ कहिये निजस्वरूपका पावनां जातें होय सो परिणाम है । जैसे | सुवर्णके पीततादि गुण, कंकण कुंडल आदि पर्याय, तैसे परिणाम जाननां । इहां कर्म आदिकका | निमित्त नाही लेना । तहां उपशम है प्रयोजन जाका ताळू औपशमिक कहिये । यहां प्रयोजनार्थमें 'इक प्रत्ययः सिद्धि कीया है । ऐसेंही क्षायिक क्षायोपशमिक औदयिक पारिणामिक जाननां । ते 'पांच भाव असाधारण जीवके स्वतत्त्व कहिये ।
अब इनिका अनुक्रमका प्रयोजन कहै हैं । इहां सम्यग्दर्शनका प्रकरण है । तहां तीन प्रकार
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