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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ पंचम अध्याय ॥ पान ४१६ ॥ है । ऐसेंही आत्माके हस्तादि चलावनेकी क्रियाकू निमित्त संयोग प्रयत्नयुक्त होय है । निःक्रिय आत्माके संयोग प्रयत्न ए दोय गुणके संबंधहीतें हस्तादिकरि चलावनां बणे नाही । इहां दृष्टान्त , जैसे दोऊ आंधे मिलै तब देखना बणे नाही, तैसें आत्माकी नि:क्रियताके गुणभी निःक्रिय दोऊ निःक्रिय मिलै परविर्षे क्रिया कैसे करावे?
इहां पूछे, जो, धर्मादिक द्रव्य क्रियारहित हैं, जे जीवपुद्गलकों क्रियाके कारण कैसे कहो हो ? ताका समाधान, जो, धर्मादिक प्रेरकनिमित्त नाही कहें है बलाधाननिमित्त माने है। बहुरि आत्माकू सर्वगत कह्या, सो सर्वथा सर्वगतभी नाही है । संकोचविस्तारशक्तिकरि असर्वगतभी है । ऐसें इत्यादि युक्तिकरि आत्मा कथंचित् क्रियावान है । बहुरि पुद्गल क्रियावान् प्रसिद्धही है। धर्म अधर्म आकाश ए क्रियारहित हैं । वहुरि आगे कहियेगा कालद्रव्य सोभी क्रियारहित है ॥ ___ आगें, अजीवकाया ऐसें सूत्रविर्षे पहले कह्या तहां कायशब्दकरि प्रदेशनिका अस्तित्वमात्र तौ जान्यां । परंतु प्रदेश एते हैं ऐसा न जान्या । सो प्रदेशनिकी संख्याक निश्चय करनेकू सूत्र कहै हैं
॥असंख्येयाः प्रदेशा धर्माधर्मैकजीवानाम् ॥ ८॥ __ याका अर्थ- धर्मद्रव्य अधर्मद्रव्य एकजीवद्रव्य इनके प्रत्येक असंख्यात प्रदेश हैं । असं
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