________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
ApnerPorAASPORAgarwargspnaPrasARPROONApr
॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ पंचम अध्याय ॥ पान ४१४ ॥ जो क्रियास्वभावही होय तौ निरंतर क्रियाही ठहरै। तातै स्वभाव न कहना । बहुरि क्रियाकू.द्रव्यहीकी अवस्था कही । तातें ऐसा जानना, जो, क्रिया गुणतें जुदी नाही । बहुरि देशान्तरकी प्राप्ति... कारण कही सो यातें गुणरूप न जाननी, तिस परिस्पंदरूप क्रियाते रहित होय ते निष्क्रिय कहिये ___ इहां तर्क, जो, धर्मादिक द्रव्य क्रियारहित हैं, इनकै उत्पाद न चाहिये, जाते परिस्पंदरूप क्रियापूर्वकही घटादिकके उत्पाद देखिये है, बहुरि उत्पाद न होय, तब नाशभी न होय, तव सर्व द्रव्यनिकें उत्पाद व्यय ध्रौव्य इन तीनूं रूपनिकी कल्पना न ठहरै । ताका समाधान, जो, ऐसें नाहीं है । उत्पादादिक क्रियानिमित्त भये तिनसिवाय अन्यप्रकारभी होय है । तहां उत्पाद दोयप्रकार है स्वनिमित्त परनिमित्त। तहां अगुरुलघुगुणके परिणमनतें उत्पाद होय, सो तौ स्वनिमित्त कहिये । कैसे हैं अगुरुलघुगुण ? परि णामकरि अनंत हैं । बहुरि पदस्थानपतित हानिवृद्धिकरि सहित हैं। बहुरि आगमप्रमाणकरि माने हैं । बहुरि ऐसेही व्यय हो है । बहुरि परनिमित्त उत्पादव्यय है । सो गऊ घोडा आदिनकू गतिस्थितिअवगाहकू ए द्रव्य निमित्त हैं। अर क्षणविर्षे तिन गति आदिका भेद हैं। तातें तिनके हेतु. | केभी भिन्नपणा मानिये । ऐसा परनिनित्त उत्पाद व्यय मानिये हैं ।
बहुरि इहां तर्क, जो, धर्म आदि द्रव्य क्रियारहित हैं, तो जीवपुद्गल• गति आदिके कारण
For Private and Personal Use Only