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ఆటోనగుండకుంకుమలత వంటకాలు
॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ पंचम अध्याय ॥ पान ४१२ ॥ आगें नित्यावस्थितान्यरूपाणि यह सूत्र सामान्यकरि कह्या, तामें पुद्गलकैभी अरूपीपणाकी प्राप्ति आवै है, ताका निषेधके अर्थि विशेषसूत्र कहै हैं
॥ रूपिणः पुद्गलाः ॥५॥ याका अर्थ- पुद्गल हैं ते रूपी हैं । रूपशब्दके अनेक अर्थ हैं । तथापि इहां रूपादिका आकाररूप मूर्तिका अर्थ है। सो रूप जाकै होय सो रूपी कहिये, ऐस अर्थतें मूर्तिमान रूपी भया । अथवा रूप गुणकू कहिये, सो जामें रूपगुण होय सो रूपी कहिये, ऐसें रूपते अविनाभावी रस गंध स्पर्शभी गर्भित भये । बहुरि पुद्गल ऐसा बहुवचन है, सो, पुद्गलके भेद बहुत हैं, स्कंध परमाणु इत्यादि आगे कहेंगे; ताके जनावनेकू है। जो सांख्यमती प्रकृतिकू अरूपी एक माने है तैसें मानिये तो समस्तलोकमें मूर्तिककार्य देखिये है, तिनका विरोध आवै ॥ आगें पूछे है कि, धर्मादिक द्रव्य हैं, ते पुद्गलकीज्यों भिन्न अनेक हैं कि नाही? ऐसे पूछे सूत्र कहें हैं
॥ आ आकाशादेकद्रव्याणि ॥ ६॥ याका अर्थ- धर्म अधर्म आकाश ए एकएक द्रव्य हैं । इहां आङ् उपसर्ग है सो अभिविधि | अर्थमैं है । तातें सूत्रमें धर्म अधर्म आकाश कहे हैं, सो आकाशताई तीनूं द्रव्य ग्रहण करने । बहुरि
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